आइए जानते हैं कांवड़ यात्रा क्या है और इससे जुड़ी सम्पूर्ण जानकारी

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देवभूमि उत्तराखंड धार्मिक यात्राओं के लिए जाना जाता है। कांवड़ यात्रा के लिए दूसरे राज्यों से लाखों की संख्या में कांवड़ियां हर की पौड़ी आते हैं और जहां से गंगाजल लेकर शिवरात्रि पर अपने-अपने क्षेत्रों के शिवालयों में जलाभिषेक करते हैं। तो आज हम जानेंगे कितने प्रकार के होते हैं कांवड़ और इन्हे क्यों कहा जाता है कांवड़िया…….

कांवड़ यात्रा क्यों कहा जाता है:

चूंकि बांस की लकड़ी पर दोनों ओर टिकी हुई टोकरियों के साथ श्रद्धालू पहुंचते हैं और इन्हीं टोकरियों में गंगाजल लेकर लौटते हैं। इस कांवड़ को लगातार यात्रा के दौरान अपने कंधे पर रखकर यात्रा करते हैं, इसलिए इस यात्रा कांवड़ यात्रा और यात्रियों को कांवड़िए कहा जाता है।

कितने प्रकार के होते हैं काँवड़

सामान्य कांवड़:
सामान्य कांवड़िए कांवड़ यात्रा के दौरान जहां चाहे रुककर आराम कर सकते हैं। आराम करने के लिए कई जगह पंडाल लगे होते हैं, जहां वह विश्राम करके फिर से यात्रा को शुरू करते हैं।

डाक कांवड़:
डाक कांवड़िए कांवड़ यात्रा की शुरूआत से शिव के जलाभिषेक तक बिना रुके लगातार चलते रहते हैं। उनके लिए मंदिरों में विशेष तरह के इंतजाम भी किए से जाते हैं। जब वो आते हैं हर कोई उनके लिए रास्ता बनाता है। ताकि शिवलिंग तक बिना रुके वह चलते रहें।
खड़ी कांवड़:
कुछ भक्त खड़ी कांवड़ लेकर चलते हैं। इस दौरान उनकी मदद के लिए कोई-न-कोई सहयोगी उनके साथ चलता है। जब वे आराम करते हैं, तो सहयोगी अपने कंधे पर उनकी कांवड़ लेकर कांवड़ को चलने के अंदाज में हिलाते रहते हैं।

दांडी कांवड़:
दांडी कांवड़ में भक्त नदी तट से शिवधाम तक की यात्रा दंड देते हुए पूरी करते हैं। कांवड़ पथ की दूरी को अपने शरीर की लंबाई से लेट कर नापते हुए यात्रा पूरी करते हैं। यह बेहद मुश्किल होती है और इसमें एक महीने तक का वक्त लग जाता है।

यह हैं नियम:
कांवड़ यात्रा ले जाने के कई नियम होते हैं, जिनको पूरा करने का हर कांवड़िया संकल्प करता है। यात्रा के दौरान किसी भी प्रकार का नशा, मदिरा, मांस और तामसिक भोजन वर्जित माना गया है। कांवड़ को बिना स्नान किए हाथ नहीं लगा सकते, चमड़ा का स्पर्श नहीं करना, वाहन का प्रयोग नहीं करना, चारपाई का उपयोग नहीं करना, वृक्ष के नीचे भी कांवड़ नहीं रखना, कांवड़ को अपने सिर के ऊपर से लेकर जाना भी वर्जित माना गया है।